केवल मनुष्य ही नहीं, अपितु प्रत्येक प्राणी में सुखप्राप्ति की प्रेरणा होती है । यह प्रवृत्ति जन्म से ही होती है । इस प्रवृत्ति को प्रशिक्षण से प्राप्त नहीं किया जाता है । चाहे कोई शिक्षित हो अथवा अशिक्षित, सभ्य हो अथवा असभ्य, धनी हो अथवा निर्धन, आस्तिक हो अथवा नास्तिक – सभी सुख चाहते हैं । पक्षी, पशु अथवा जलचर जो मनुष्य नहीं होते हैं, वे भी कष्ट से दूर एवं सुखदायक वातावरण में रहना चाहते हैं । मनुष्यों की तरह वे सुख-भोग हेतु बड़ी योजनाएँ निर्मित नहीं करते हैं परन्तु वे भी येन केन प्रकारेण दुःख से दूर रहना चाहते हैं । पौधों में भी अपने विकास में आने वाली बाधा को दूर करने की बुद्धि होती है । अतएव अपने अनुभव एवं तर्क से हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि सुख की प्रेरणा आत्मा में स्वरूपभूत होती है । अभी हम परीक्षण करते हैं कि क्या यह अनुमान शास्त्रसम्मत है ।
परमात्म सन्दर्भ के अनुच्छेद १९ से ४६ में श्री जीव गोस्वामी ने जीव अथवा आत्मा के स्वरूप की विस्तृत व्याख्या की है । अनुच्छेद १९ में सर्वप्रथम वे पद्म पुराण के श्लोक उद्धृत करते हैं –
जीव,-ज्ञानाश्रय, ज्ञानगुण, चेतन, प्रकृत्यतीत, अज, विकार शून्य, एकरूप, स्वरूपस्थित। अणु, नित्य, व्याप्तिशील, चिदानन्दस्वरूप, अहमर्थ, अविनाशी, क्षेत्री, भिन्नरूप, सनातन, अदाा, अच्छेद्य, अक्लेद्य, अशोष्य, अक्षर इत्यादि गुणयुक्त, परमेश्वर के शेषभूत (अंशरूप) है। अ, उ, म, वर्णत्रय युक्त है। प्रणव है, उक्त प्रणवान्तर्भत “म” कार का ही अर्थ जीव है। वह क्षेत्रज्ञ एवं सदा परमात्मा के अधीन है। उक्त जीव श्रीभगवान् का ही नित्य दास है, अपर किसी का भी दास नहीं है। (पद्म पुराण, उत्तर खण्ड २२६.३4३७)
तत्पश्चात् वे श्री सम्प्रदाय के जामातृ मुनि के लेख से कुछ श्लोक उद्धृत करते हैं –
आत्मा, देव नहीं है, मनुष्य, तिर्यक्, पशु, पक्षी, नहीं है, स्थावर नहीं है, शरीर नहीं है, इन्द्रिय नहीं है, मनः, प्राण, बुद्धि नहीं है। जड़, विकारी, ज्ञानमात्र स्वरूप नहीं है। जीव स्वयं प्रकाश है, एकरूप, स्वरूपविशिष्ट है, चेतन, व्याप्तिशील, चिदानन्दरूप, अहमर्थ, प्रतिक्षेत्र भिन्न, सूक्ष्म, नित्य निर्मल, तथा ज्ञातृत्व भोक्तृत्व कर्तृत्व निज युक्त है। परमात्मा का अंशरूप एकशेष स्वभाव में सर्वदा विद्यमान है।
इन श्लोकों में जीव के २१ लक्षण दिये गये हैं । श्री जीव गोस्वामी उत्तरगामी अनुच्छेदों में प्रत्येक लक्षण की व्याख्या करते हैं । इस सूची में “सुखप्राप्ति की प्रेरणा” का कोई उल्लेख नहीं है । जीव के लक्षणों की व्याख्या करते हुए श्री जीव गोस्वामी “सुखप्राप्ति की प्रेरणा” का कोई उल्लेख नहीं करते हैं । उन्होंने जीव की स्वरूपभूत प्रकृति का विश्लेषण करते हुए “सुखप्राप्ति की प्रेरणा” का कोई उल्लेख नहीं किया है ।
तो फिर हम इस सुख प्राप्ति की निरन्तर कामना एवं प्रयास को कैसे समझ सकते हैं ? निस्सन्देह यह ऐसी कामना नहीं है जिसे मनुष्यों ने प्राप्त किया है क्योंकि यह तो पशु पक्षी में भी होती है । इस प्रश्न का उत्तर १२वें लक्षण “चिदानन्दात्मक” (ज्ञान एवं आनन्द आत्मा का स्वरूपभूत गुण है) में इंगित है । यह विचित्र प्रतीत होता है क्योंकि हमें सुख एवं आनन्द प्राप्ति के नित्य प्रयास का अनुभव है । यह उतना ही निरर्थक है जितना कि ऐसे किसी व्यक्ति को देखना जो अपने प्रिय पदार्थ का भोजन करके बेधड़क भोजन खोजता है । यदि जीव में आनन्द स्वरूपभूत है तो वह इसे बाहर क्यों खोजता है ? श्री जीव गोस्वामी ने अनुच्छेद २८ में चिदानन्दात्मक लक्षण पर टिप्पणी करते हुए इस विषय को समझाया है । वे लिखते हैं – “तत्र तस्य जड़-प्रतियोगित्वेन ज्ञानत्वं दुःख-प्रतियोगित्वेन तु ज्ञानत्वमानन्दत्वञ्च” – जड़ प्रतियोगित्व हेतु ज्ञानत्व, एवं दुःख प्रतियोगित्व हेतु ज्ञानत्व एवं आनन्दत्व, कहा गया है, अर्थात् जीव में ज्ञान एवं दुःख का अभाव स्वरूपभूत है । जैसे जड़ नहीं होने को चेतन माना गया है वैसे ही दुःख के अभाव को सुख अथवा आनन्द माना गया है । अन्य शब्दों में कह सकते हैं कि दुखी नहीं होना भी एक प्रकार का आनन्द अथवा सुख है । अन्य प्रकार के सुख में है – भौतिक सुख (मर्त्यानन्द), निर्गुण परम सत्य के अनुभव का आनन्द (ब्रह्मानन्द) एवं भक्तिमय प्रेम का आनन्द (भक्त्यानन्द अथवा प्रेमानन्द) ।
हमारे अधिकतर सुख का अनुभव केवल दुःख अथवा क्लेश का निवारण ही है । जब हमें असुविधा होती है, हम उसके निवारण से प्रसन्न होते हैं । हमारे भौतिक जीवन में अधिकतर सुखों के अनुभव के पूर्व दुःख होता है । यदि हम गर्मी से तप्त हैं, तो शीतल स्थान का अनुभव करते हैं । हमारी प्रत्येक कामना विचलित करती है क्योंकि वह हमें अपने स्वरूप से दूर करती है । जब कामना की पूर्ति होती है, तब हम प्रसन्न होते हैं । हमारी प्रसन्नता का कारण उस विषय वस्तु से प्राप्त होने वाला सुख नहीं है अपितु कामना से प्राप्त उपद्रव का लोप है । विषय वस्तु पर ध्यान केन्द्रित करने के कारण हमें यह भ्रम होता है कि वह वस्तु की प्राप्ति हमारे सुख का हेतु है । यदि विषय वस्तु की प्राप्ति सुख का हेतु होती तो हम सदैव विषय वस्तुओं से सुख प्राप्त करते । परन्तु ऐसा नहीं होता है । हम सब का अनुभव है कि हम जिस वस्तु, पद अथवा कार्य की तीव्र लालसा करते हैं, वह हमें उतना सुख नहीं देती है जितना उसने तब दिया था जब हमने उसे प्राप्त किया था । उससे प्राप्त होने वाला सुख कालान्तर में घटता रहता है एवं कुछ काल पश्चात् सम्भवतः वह हमें तनिक भी सुख नहीं देगा, अपितु वह कष्ट अथवा दुःख का हेतु बन सकता है । संसार में ऐसे व्यक्ति हैं जिनके पास वह वस्तु अथवा पद है जिसके लिए हम लालायित रहते हैं परन्तु हम यदि उनपर ध्यान दें तो हम समझेंगे कि सम्भवतः वे उतने सुखी नहीं हैं । इसका कारण है कि उनके पास अपनी वाञ्छित वस्तु एवं पदों की सूची होती है । अतएव कृष्ण भगवद्गीता ५.२२ में कहते हैं कि इन्द्रिय तृप्ति की वस्तुएँ ही दुःख का कारण बन जाती हैं ।
हमारे स्वरूप में न ही दुःख है एवं न ही सुख प्राप्ति की प्रेरणा है । सुख प्राप्ति की प्रेरणा तो मन का विचार अथवा भावना है । मन आत्मा से बाह्य है । यह विचार अथवा भावना तभी प्रकट होता है जब हम मन से युक्त होते हैं । हम प्रत्येक रात्रि को इसका अनुभव करते हैं । जब हम सुषुप्ति अवस्था में होते हैंं, तब हममें कोई विचार अथवा भाव नहीं होता है । यदि हम अत्यन्त पीड़ादायक व्याधि से ग्रस्त हों तो भी हमें दुःख का कोई अनुभव नहीं होता है । इसका कारण है कि सुषुप्ति अवस्था में हम मन से युक्त नहीं होते हैं । इस दुःख निवृत्ति को ही हम एक प्रकार के सुख के रूप में अनुभव करते हैं । अतएव जाग्रत होते ही हमें यह अनुभव होता है कि हमारी निद्रा अत्यन्त गहरी एवं सुखमय थी एवं निद्रा में हमें कोई ज्ञान नहीं था । यदि सुख की प्रेरणा जीव के स्वरूप में होती तो सुषुप्ति अवस्था में हमें इस प्रेरणा का अनुभव होना चाहिये । जाग्रत होने पर हमें यह कहना चाहिये कि हमारी निद्रा अत्यन्त गहरी थी एवं निद्रा में हम सुख के लिए लालायित थे । किसी को भी ऐसा अनुभव नहीं होता है ।
निष्कर्ष यह है कि शास्त्र एवं व्यक्तिगत अनुभव दोनों ही इस विचार का समर्थन नहीं करते हैं कि हममें सुख की प्रेरणा स्वरूपभूत है । सुखप्राप्ति की प्रेरणा तभी प्रकट होती है जब हम भौतिक मन एवं शरीर से तादात्म्य होते हैं क्योंकि इस अवस्था में हम अपने स्वरूप में स्थित नहीं होते हैं । स्वरूप में स्थित नहीं होने से उपद्रव की अवस्था होती है । तब हममें इस उपद्रव को दूर करने की प्रेरणा जन्म लेती है । इस प्रेरणा के मूल को आत्मा में स्थित समझना भ्रम है ।
सत्य तो यह है कि हममें स्वरूप में स्थित होने की प्रेरणा है । हमारा स्वरूप दुःख-विहीन है । अतएव हम दुःख निवृत्ति का प्रयास करते हैं । बद्धावस्था में हम मन एवं शरीर से तादात्म्य करते हैं एवं इनको ही अपना स्वरूप मान लेते हैं । परन्तु यह भ्रम है । हमारे मन एवं शरीर में सदैव विकार होता है । हमारी प्रकृति सन्तुलन बनाये रखने हेतु कार्य करती है । हम स्वयं भी सन्तुलित रहने हेतु कार्य करते हैं । हम समस्त प्रकार के मानसिक एवं शारीरिक उपद्रवों से निवृत्ति चाहते हैं । हम अनुभव करते हैं कि हममें कुछ कमी है । अतएव हम यह सोचते हैं कि यदि हम उस वस्तु को प्राप्त कर लेंगे जिसकी कमी है, तो हम सुखी हो जायेंगे । हम सब में यह स्वाभाविक प्रेरणा है । जब हम सुख का अनुभव करते हैं, तब हम स्वयं के निकट होते हैं । स्वयं से दूर हो जाने को कष्ट कहते हैं । आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति सुखप्राप्ति की प्रेरणा का अनुभव नहीं करते हैं क्योंकि वे मन एवं शरीर से तादात्म्य नहीं करते हैं । वे दुःख निवृति की अवस्था का अनुभव करते हैं । भगवद्गीता ६.२३ में कृष्ण इसे योग कहते हैं – तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् – जिस अवस्था में दुःख का संयोग नहीं होता है, उसे योग समझो ।
अतएव, श्रीमद्भागवतम् २.१०.६ में मुक्ति की परिभाषा दी गई है – मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थितिः – मुक्ति का अर्थ है उससे तादात्म्य को त्यागना जो स्वरूप नहीं है एवं स्वरूप में स्थित होना । (दुःख) निवृत्ति को मुक्ति कहते हैं । सुख को मुक्ति नहीं कहते हैं । दुःख निवृत्ति भी एक प्रकार का सुख है । जब हम अपने स्वरूप से दूर होते हैं, तब हम दुःख अनुभव करते हैं । अतएव पतञ्जलि ने योग की परिभाषा दी है – योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः (योग सूत्र १.२) – मन की वृत्तियों से वियोग को योग कहते हैं । इसका परिणाम यह होता है कि हम अपने स्वरूप में स्थित होते हैं – तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् (योग सूत्र १.३) । इस प्रकार हम देख सकते हैं कि कृष्ण एवं पतञ्जलि ने मुक्ति एवं योग की एक ही परिभाषा दी है ।
चूँकि हमारा स्वरूप दुःख विहीन है वह प्रेम का पात्र (प्रीति-आस्पद) है । उसकी प्राप्ति के उपरान्त जीव किसी भी अवस्था में विचलित नहीं होगा । भगवद्गीता ६.२२ के अनुसार यह सर्वोच्च उपलब्धि है । भौतिक संसार में भी हम उन वस्तुओं से प्रेम करते हैं जिन्हें हम अपना समझते हैं । शरीर एवं उससे सम्बन्धित वस्तुएँ हमारे प्रेम के पात्र तभी होते हैं जब हम उन्हें अपना समझते हैं । जब हम वस्तु एवं व्यक्ति को अपना समझना छोड़ देते हैं, तब हम उनसे उदासीन हो जाते हैं । हम भौतिक वस्तुओं का भोग तभी तक करते हैं जब तक हम उन्हें अपना समझते हैं । अन्य शब्दों में ऐसा कह सकते हैं कि हम स्वयं को किसी वस्तु में निमज्जित करते हैं एवं उससे आनन्द प्राप्त करते हैं । वास्तव में हम बाह्य वस्तु, सम्बन्ध एवं पदों में सुख प्राप्त करते हैं । उनसे सम्बन्ध स्थापित करके हम इस भ्रम में होते हैं कि हम स्वरूप में स्थित हैं । यह मुक्ति का भ्रम है एवं स्वरूप के अज्ञान का परिणाम है । वास्तविक सुख तो केवल भक्ति से प्राप्त होता है क्योंकि भगवान् आत्मा के आत्मा हैं, जैसा कि श्रीमद्भागवतम् (१०.१४.५५) में शुकदेव ने कहा है – कृष्ण को समस्त आत्माओं के आत्मा के रूप में जानो ।
– सत्यनारायण दास
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