मैं जिन विभिन्न समस्याओं पर परामर्श देता हूँ, उसमें से परस्पर सम्बन्धों में आने वाली समस्या का विषय भी होता है । केवल दम्पति ही नहीं, अपितु कुँवारों को भी अपने सम्बन्धों में समस्या हो सकती है । इसका कारण यह है कि वर्तमान समाज में हमने अपनी बाल्यावस्था में अपने माता-पिता को आदर्श सकारात्मक सम्बन्ध स्थापित करते हुए नहीं देखा होगा । वैसे, हम सम्बन्धों के विषय सर्वप्रथम किनसे ज्ञान प्राप्त करते हैं ? अपने माता-पिता से करते हैं । हमारे माता-पिता जिस प्रकार परस्पर सम्बन्ध रखते हैं, हम उसी प्रकार सम्बन्ध के विषय को समझते हैं । उनके परस्पर सम्बन्ध से हम अच्छे बुरे सम्बन्ध का अनुमान लगाते हैं । यदि हमारे माता-पिता के बीच सहयोगपूर्ण एवं प्रेममय सम्बन्ध नहीं था और यदि हमने अन्य व्यक्तियों में सकारात्मक सम्बन्ध नहीं देखा हो, तो हमें सम्बन्धों के विषय में भ्रान्ति हो सकती है ।
इसके अतिरिक्त सम्बन्धों को सफल बनाने का कोई प्रशिक्षण भी अधिकतर नहीं दिया जाता है । हमें अपने माता-पिता अथवा विद्यालय में अन्यों , विशेषतः अपने साथी के साथ सम्बन्ध स्थापित करने का ज्ञान नहीं दिया जाता है । शान्तिमय एवं प्रेममय सम्बन्ध स्थापित करने, उसकी आवश्यकताएँ, आवश्यक गुणों को विकसित करने की प्रक्रिया के विषय में कोई पाठ्यक्रम नहीं होता है । यद्यपि शान्तिमय एवं प्रेममय सम्बन्ध के विषय में हमारी विचारधारा भिन्न हो सकती है, फिर भी हम सब ऐसे सम्बन्ध के लिए तरसते हैं । हम शिक्षा के किसी भी क्षेत्र में चाहे क्यों न हों, हम समाज के भाग हैं । चाहे हम वैद्य, अभियान्त्रिक (इञ्जीनियर), व्यवस्थापक, नेता, किसान, श्रमिक अथवा देख-रेख करने वाले हों, हम सब समाज के अंग हैं । हम सभी को अपने सहकर्मियों के साथ सम्बन्ध रखने होंगे एवं अधिकतर हम सभी सम्बद्ध परिवार के सदस्य होना चाहते हैं । परन्तु यदि हमने सम्बन्ध स्थापित करने कला नहीं सीखी हो तो हम समाज में प्रयत्न-त्रुटि विधि का प्रयोग करेंगे जिससे दुःख एवं सामाजिक मनमुटाव उत्पन्न होगा ।
संस्कारों द्वारा प्रेरित
यदि मैं मोटरगाड़ी चलाना नहीं जानता हूँ तो मैं उस वाहन का सफलतापूर्वक प्रयोग नहीं कर पाउंगा । मैं मोटरगाड़ी को केवल आरम्भ कर सकूंगा जिसके लिए विशेष कौशल की आवश्यकता नहीं है । परन्तु मोटरगाड़ी के एक बार आरम्भ होने पर मेरी अकुशलता के कारण यात्रा संकटपूर्ण बन जायेगी । मैं दुर्घटनाग्रस्त भी हो सकता हूँ । मैं मोटरगाड़ी से बाहर निकलकर उस वाहन को दोष भी दे सकता हूँ एवं एक नयी मोटरगाड़ी भी क्रय कर सकता हूँ । वाहन बदल देने मात्र से उसे चलाने के कौशल में सुधार नहीं हो सकता है । मुझे गाड़ी चलाने के विशेषज्ञ से प्रशिक्षण प्राप्त करना होगा । निस्सन्देह इतना तो हम भी समझते हैं । गाड़ी चलाने से पूर्व हम उसे चलाने का प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं । गाड़ी न्यायोचित रूप से चलाने से पूर्व हमें राज्य के अधिकारी से अनुज्ञापत्र (लाइसेंस) प्राप्त करना होगा । परन्तु सम्बन्धों के विषय में हम ऐसा विचार नहीं करते हैं । हम सोचते हैं कि साथी बदल देने से समस्या का समाधान हो जायेगा । हमारे अनुसार पिछला सम्बन्ध इसलिये सफल नहीं हुआ क्योंकि पिछले साथी में ही समस्या थी । परन्तु अब हम अनुभवी हो गये हैं और अब हम श्रेष्ठतर साथी की खोज करेंगे । दुर्भाग्यवश सम्बन्ध ऐसे सफल नहीं होते हैं । हम साथी तो खोज सकते हैं परन्तु अधिकर सम्भावना यही है अगला साथी भी पूर्व जैसा हॉ होगा । यह उस अंग्रेजी कहावत की तरह है – “पुरानी बोतल में नयी शराब” । हमारे संस्कार बाल्यावस्था से है एवं अनजाने में वे संस्कार हमें अपने जैसे साथी को खोजने के लिए प्रेरित करते हैं ।
एक सम्बन्ध दो व्यक्तोयों को बाँधता है । यह दो व्यक्तियों की परस्पर क्रिया है । दोनों व्यक्ति सम्बन्ध में समान रूप से भागीदार होते हैं । यदि हम स्वयं के अन्दर में न झाँकें तो हम नहीं समझ पाएंगे कि हम ही समस्या एवं समाधान के आधे-आधे भागीदार हैं । यदि हम यह नहीं समझते हैं तो परिवर्तन सम्भव नहीं है । सर्वप्रथम हमें स्वयं को एवं अपनी आवश्यकताओं को समझना होगा । हम सम्बन्ध क्यों चाहते हैं ? अनेक बार मनुष्य यह सोचते हैं “मैं अकेला हूँ एवं मेरा जीवन एकाकी है । मैं स्वयं से ऊब चुका हूँ । अतएव मुझे सम्बन्धी की आवश्यकता है ।” इस प्रकार ऊबे हुए एकाकी जीवन से दूर होने हेतु हम साथी चाहते हैं । परन्तु हमें यह विचार करना चाहिये कि यदि हम स्वयं से ऊब चुके हैं तो हमारा साथी भी हमसे ऊब जायेगा । यह भी नितान्त सम्भव है कि जिस साथी को हमने चुना है वह भी स्वयंं से ऊब चुका होगा एवं एकाकीपन का अनुभव करता होगा । हम अन्य व्यक्ति को वही देते हैं जो हमारे पास होता है । तो अब ऐसी स्थिति होती है कि दो ऐसे व्यक्ति साथा आते हैं जो स्वयं से पूर्णतया ऊब चुके हैं । आश्चर्य यह है कि इन दोनोंं में अब प्रेम का प्रवाह आरम्भ होता है । वास्तव में यह अधिकतर मनुष्यों का स्वप्न ही होता है । यह स्वप्न कभी फलीभूत नहीं होता है ।
माँगों में सन्तुलन
सत्य यह है कि कोई भी सम्बन्ध जो व्यक्तिगत आवश्यकताओं पर निर्भर होता है वह अधिक काल तक टिक नहीं सकता है । आवश्यकता चाहे शारीरिक हो अथवा मानसिक, वह पूर्ण होते ही मन अन्य वस्तु खोजना आरम्भ करेगा । मन की आवश्यकताओं का कोई अभाव नहीं है । मन की आवश्यकता जहाँ पूर्ण हो, वह वहीं भागेगा । सम्बन्ध में आवश्यकता पूर्ण होने पर क्या तो वह सम्बन्ध ही समाप्त हो जायेगा क्योंकि व्यक्ति को अब वह प्राप्त नहीं हो रहा है जो उसे अब चाहिये अथवा यदि सम्बन्ध बना रहे तो वह शान्तिमय एवं प्रेममय नहीं रहेगा । व्यक्तिगत आवश्यकता से सम्बन्ध दुर्बल हो जाता है । हमारा साथी हमारा शोषण कर सकता है । सम्बन्ध की यही प्रक्रिया होती है ।
मैं ऐसे सम्बन्ध जानता हूँ जिसमें एक साथी पूर्णतया दुखी एवं शोषित अनुभव करता है परन्तु वह सम्बन्ध तोड़ना नहीं चाहता है क्योंकि वह अपनी अत्यन्त तीव्र व्यक्तिगत आवश्यकता को पूर्ण करना चाहता है । पूर्व काल में वह आवश्यकता कुछ समय के लिये पूर्ण हुई थी परन्तु अब वह व्यक्ति इस आशा में जीवनयापन करता है कि स्थिति परिवर्तित होगी एवं अच्छा समय वापस आयेगा । कभी कभी यह आवश्यकता पूर्ण हो ही नहीं पायी थी परन्तु व्यर्थ की आशा रखते हुए आगे बढ़ता रहता है । अतएव यदि मनुष्य के सम्बन्ध में व्यक्तिगत माँगें पूर्ण नहीं हो पा रही हैं तो नकारात्मक भावनाएँ जन्म लेंगी । ऐसी भावनाएँ प्रेम को नष्ट कर देती हैं । मैं यह अपेक्षा नहीं करता कि मनुष्य को सम्बन्ध में व्यक्तिगत माँग नहीं होनी चाहिए अपितु वे सन्तुलित होनी चाहियें । स्थायी सम्बन्ध तो आपस में बाँटने की भावना से सम्भव है । यदि केवल माँग हो एवं बाँटने की भावना न हो तो ऐसा सम्बन्ध केवल नरक है । इसमें व्यक्ति का दम घुट जायेगा एवं उसका व्यक्तिगत विकास तो सम्भव ही नहीं है । भौतिक संसार में अप्रतिबन्धित प्रेम कठिन है परन्तु परस्पर ध्यान रखने की, आपस में मिल बाँटने की, एवं मानसिक स्तर पर आसक्ति होना आवश्यक है । जो सम्बन्ध केवल शारीरिक स्तर पर है, वह स्थायी नहीं हो सकता है ।
विभिन्न प्रकार के दुष्क्रियाशील सम्बन्ध
मेरे अनुभव से मैं यह समझता हूँ कि प्रेममय सम्बन्ध विभिन्न प्रकार से प्रकट होते हैं । कुछ सम्बन्धों में एक साथी अन्य से अतिशय स्नेह करता है । यद्यपि यह आरम्भ में अति सुन्दर लगता है परन्तु कुछ काल पश्चात् ऐसा प्रतीत होता है कि यह व्यक्ति अपने साथी को गुड़िया समझ बैठा है एवं उसके प्रत्येक क्रिया को नियन्त्रित करने का प्रयास करता है । ऐसा व्यक्ति अपेक्षा करता है कि उसका साथी उसकी इच्छानुसार ही कार्य करे । कभी कभी ऐसा व्यवहार माँ के अपने सन्तान के प्रति देखा जाता है । माता सन्तान की देखरेख के नाम पर उसे तनिक भी स्वतन्त्रता प्रदान नहीं करती है । परन्तु प्रेम स्वतन्त्रता देता है । अपने साथी के कल्याण की चिन्ता करना अच्छा है परन्तु यह भी विचार करना चाहिए कि उस साथी का भी अपना मन है एवं उसकी भी अपेक्षायेँ हैं ।
अन्य सम्बन्ध वह होता है जिसमें एक साथी अन्य को सदैव प्रवचन देता रहता है । यह प्रवचन अथवा प्रशिक्षण के नाम पर आलोचना है । अपने साथी में विश्वास होना चाहिए । ऐसे भी सम्बन्ध होते हैं जिनमें दोनों अधिकतर लड़ते रहते हैं । दोनों बराबर रूप से सशक्त होते हैं एवं परस्पर आलोचना करते रहते हैं । ऐसे सम्बन्ध भी होते हैं जिसमें एक साथी अन्य को सदैव नकारता है । जब अन्य साथी कोई प्रेममय आदान-प्रदान करता है तो प्रथम साथी उसे नकारात्मक रूप में लेता है । ऐसे साथी भी होते हैं जो इतने समर्पित होते हैं कि वे स्वयं की आवश्यकताओं का ध्यान रखते ही नहीं हैं । यदि उनकी सेवा न हो तो वे असन्तुष्ट हो जाते हैं ।
अपेक्षाओं के विषय में सतर्कता
चाहे जो भी हो, व्यक्ति को स्वयं एवं अपने साथी की अपेक्षाओं के विषय में सतर्क रहना चाहिये । यदि सम्भव हो तो अपनी अपेक्षाओं के विषय में अपने साथी के साथ सम्वाद करना चाहिए, अन्यथा अन्य साथी को इनके विषय में ज्ञान ही नहीं होगा । इसके उपरान्त सम्बन्ध को स्थायी एवं सफल बनाने हेतु अल्प त्याग एवं सामञ्जस्य की आवश्यकता है । त्याग, सहिष्णुता, समझदारी, नम्रता, दया एवं करुणा के अभाव में स्वस्थ प्रेममय सम्बन्ध असम्भव है ।
सत्यनारायण दास
You have to have a clear definition of your goal – what do I want? What am I heading for? You have to have a very clear definition of what is Bhakti. If you are not clear, then you can remain in a hazy field for a long time. That is the significance of Nyaya. It gives clear definitions, which is very important. Otherwise you may think that this is the definition of Bhakti and I am doing Bhakti, but what you may be doing may not fit the definition.
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