हाल ही में मुझे भक्तों से कुछ ईमेल प्राप्त हुए, जिसमें पूछा गया कि क्या मेरे गुरुदेव ने कहा है कि श्री नित्यानन्द प्रभु और अद्वैत आचार्य माधुर्य-भाव या मंजरी-भाव प्रदान नहीं कर सकते? ऐसा लगता है कि मेरे एक सतीर्थ (एक ऐसे व्यक्ति के लिए प्रयोग किया जाने वाला संस्कृत शब्द, जिसके गुरु वे ही हैं जो स्वयं के हैं, जिसे साधारणतः “गुरुभाई एवं गुरुबहन” के रूप में अनुवादित किया जाता है) ने एक भक्त और मेरे गुरुदेव के मध्य एक वार्तालाप प्रकाशित किया है। यह मुझे अत्यन्त व्यथित करने वाला है और निश्चित रूप से श्री नित्यानन्द एवं श्री अद्वैत आचार्य परिवार से सम्बन्धित भक्तों को भी व्यथित करने वाला है। गुरुदेव के साथ अपने व्यापक सङ्ग के आधार पर मैं यहाँ इस विषय पर एक स्पष्ट बयान दे रहा हूं।
आरम्भ से ही मैं स्पष्ट रूप से कहता हूँ कि मेरे गुरुदेव ने कभी भी श्री नित्यानन्द प्रभु अथवा श्री अद्वैत आचार्य के विरुद्ध ऐसी कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं की है। कोई गौड़ीय वैष्णव पञ्चतत्त्व के किसी भी
सदस्य का अनादर करने का साहस कैसे कर सकता है? जो कोई पञ्चतत्त्व की अवहेलना करता है, उसे गौड़ीय वैष्णव एवं श्री चैतन्य महाप्रभु का अनुयायी कैसे माना जा सकता है? इतिहास से हम जानते हैं कि श्री अद्वैत आचार्य ने अपने कुछ पुत्रों को अस्वीकार कर दिया जो श्री महाप्रभु की शिक्षाओं के साथ सम्मत नहीं हुए थे।
मुझे अपनी प्राप्त शिक्षा का प्रदर्शन करने में रुचि नहीं है परन्तु यदि मेरे गुरुदेव का सम्मान दाँव पर है तो मुझे ऐसा करने में कोई आपत्ति नहीं है। मैं घोषणा करता हूँ कि गुरुदेव के साथ जितना घनिष्ठ सङ्ग मुझे प्राप्त हुआ था उतना मेरे किसी सतीर्थ को नहीं हुआ। मुझे प्रायः २६ वर्षों तक उनका सङ्ग प्राप्त हुआ। यह सङ्ग केवल उनके आसपास रहने का ही नहीं था। २६ वर्षों के अधिकांश भाग में मैंने प्रत्यक्ष उनके शिक्षण में अध्ययन किया। गुरुदेव न केवल गौड़ीय सम्प्रदाय के अपितु समस्त षड्दर्शनों के एक अद्वितीय विद्वान थे। उनके पास बनारस से नौ शास्त्री (स्नातक) शैक्षिक उपाधियाँ थीं। उनका जीवन अनुकरणीय था, और उन्होंने शास्त्रीय सिद्धान्तों के आधार पर जीवनयापन किया था। उनसे मैंने गौड़ीय संप्रदाय के सभी प्रमुख शास्त्रों का अध्ययन किया है । इनमें षट्सन्दर्भ एवं उनपर सर्वसंवादिनी टीका, विश्वनाथ चक्रवर्ती एवं बलदेव विद्याभूषण की टिप्पणियों के साथ भगवद्गीता, सनातन गोस्वामी के भाष्य सहित बृहद्भागवतामृतम्, बलदेव विद्याभूषण की टीका सहित लघु भागवतामृतम्, जीव गोस्वामी और विश्वनाथ चक्रवर्ती की
टिप्पणियों सहित भक्तिरसामृतसिंधु, जीव गोस्वामी एवं विश्वनाथ चक्रवर्ती की टीका सहित उज्जवलनीलमणि, वेदान्त सूत्र पर बलदेव विद्याभूषण की गोविन्दभाष्य टीका, विश्वनाथ चक्रवर्ती की भाष्य सहित अलङ्कार कौस्तुभ, जीव गोस्वामी की भाष्य सहित ब्रह्मसंहिता, चैतन्य चरितामृत, श्रीधर स्वामी, जीव गोस्वामी, और विश्वनाथ चक्रवर्ती की भाष्य सहित श्रीमद्भागवतम्, सनातन गोस्वामी की टीका सहित हरिभक्तिविलास, हरिनामामृतव्याकरणम्, बलदेव विद्याभूषण की भाष्य सहित सिद्धान्तरत्नम्, कृष्णदेव सार्वभौम की टीका सहित प्रमेयरत्नावली, वेदांत-स्यामंतक, कुमारिला, कुमारिल भट्ट की श्लोक-वार्तिक (केवल एक भाग), और गङ्गेश उपाध्याय की तत्त्व-चिंतामणि (केवल एक भाग)। इसके अतिरिक्त मैंने व्यक्तिगत रूप से और उनके साथ गोशाला में सेवा की है। मैंने उन्हें सभी प्रकार की अंतरंग सेवाएं प्रदान की है। अतएव, मैं उनके भाव को अच्छी तरह से जानता हूं और मैं स्पष्ट रूप से कह सकता हूं कि उन्होंने श्री नित्यानंद प्रभु अथवा श्री अद्वैत आचार्य के स्तर को कम नहीं किया।
जैसे हम महाप्रभु की जयंती और श्री गदाधर पण्डित के प्राकट्य दिवस को मनाते हैं, वैसे ही हम उनके प्राकट्य दिवस को भी मनाते हैं। गुरुदेव ने एक पंजिका बनाई जिसमें हमारे द्वारा पाले जाने
वाले व्रतों की सूची थी। उन्होंने गदाधर पंडित के प्राकट्य दिवस को एक व्रत के रूप में सूचीबद्ध नहीं किया। परन्तु उन्होंने नित्यानंद प्रभु और अद्वैत आचार्य के प्राकट्य दिवस को सदैव व्रत के रूप में सूचीबद्ध किया । जब मैंने उनसे इस विषय में पूछा, तो उन्होंने उत्तर दिया कि यह केवल हम ही हैं जो गदाधर के प्राकट्य दिवस पर व्रत पालन करते हैं, परन्तु नित्यानंद प्रभु और अद्वैत आचार्य के प्राकट्य दिवस को सभी गौड़ीय वैष्णवों द्वारा मनाया जाता है। अपने गुरुदेव के तिरोभाव के पश्चात्, मैंने श्री गदाधर के प्राकट्य दिवस को एक व्रत के रूप में सूचीबद्ध करना आरम्भ किया। अपने दैनिक अभ्यास के रूप में, हम सभी पंचतत्वों के गायत्री मंत्रों का भी जाप करते हैं। इसका अर्थ है कि हम श्री नित्यानंद प्रभु और श्री अद्वैत आचार्य से उनकी कृपा के लिए प्रार्थना करते हैं। यदि हमारा लक्ष्य माधुर्य भाव प्राप्त करना है, तो किसी ऐसे व्यक्ति से प्रार्थना करने का कोई अर्थ नहीं है जो इसे देने में सक्षम नहीं है ।
मैंने “गुरु दर्शनम्” नामक एक पुस्तक संकलित की है, जो गुरुदेव और दर्शनार्थी भक्तों के बीच संवाद पर आधारित है। कोई स्वयं के लिए विषय संख्या ७४-पंचतत्त्व (पृष्ठ संख्या २७८, २८०), और विषय ७६-परम्परा (पृष्ठ संख्या २८३-२८४) पढ़ सकता है। इन पृष्ठों को पढ़ने से पाठक को यह स्पष्ट
हो जाएगा कि गुरुदेव ने अन्य परिवारों की प्रामाणिकता को नकारा नहीं है। उनका मुख्य कथन यह था कि यदि कोई शास्त्र का ठीक से पालन करता है, तो वह प्रामाणिक है। अन्यथा, भले ही कोई गदाधर परिवार का सदस्य हो, परन्तु शास्त्र का पालन नहीं करता हो, तो वह अप्रामाणिक है।
हालांकि, इन पृष्ठों को पढ़कर, यह अनुमान लगाया जा सकता है कि गुरुदेव ने केवल गदाधर परिवार की प्रामाणिकता पर जोर दिया था। यह स्वाभाविक है और वांछनीय भी है। प्रत्येक सदस्य अपने परिवार को सर्वोच्च मानता है। अपने गुरु को सर्वश्रेष्ठ मानने का अर्थ अन्य सभी गुरुओं की अवहेलना करना नहीं है। यदि कोई शिष्य ऐसा करता है तो यह बहुत बड़ी भूल है। यही सिद्धांत परिवार पर लागू होता है। इस विषय पर पूर्व-मीमांसा में एक प्रसिद्ध सिद्धांत है। इसमें कहा गया है कि आलोचना का उद्देश्य आलोच्य वस्तु की आलोचना करना नहीं है, अपितु चर्चा के अन्तर्गत विषय को स्थापित करना है (न हि निंदा निद्यं निन्दितुम् प्रयुज्यते। किं तर्हि? निन्दितात् इतरत् प्रशंसितुम् – शाबर भाष्य ४.२.२१) उदाहरण के लिए, कभी-कभी शास्त्र में स्त्रियों के विषय में अपमानजनक शब्द हैं। इन वचनों का उद्देश्य स्त्रियों को नीचा दिखाना नहीं है अपितु जो चर्चा के विषय के महत्व को स्थापित करना है। वैराग्य की चर्चा के परिप्रेक्ष्य में सामान्यत: ऐसे कथन पाये जाते हैं। एक संन्यासी के लिए स्त्री के साथ संबंध उसके आध्यात्मिक जीवन के लिए अनुकूल नहीं है। अतएव शास्त्र इसके विरुद्ध चेतावनी देता है। चेतावनी का उद्देश्य यह घोषित करना नहीं है कि एक वर्ग के रूप में महिलाएं खतरनाक हैं अपितु संन्यासियों को सावधान रहने के चेतावनी देना है। इस सिद्धांत से अनभिज्ञ कई आधुनिक विद्वान यह निष्कर्ष निकालते हैं कि शास्त्र महिलाओं के विरुद्ध है। उनका मानना है कि क्योंकि शास्त्र पुरुषों द्वारा लिखा गया है, इसलिए महिलाओं को अपमानित किया जाता है। यह तार्किक लगता है परन्तु यह गलत है। यह शास्त्र समन्वय का पूर्ण अज्ञान है। शास्त्र उन व्यक्तियों द्वारा लिखा गया है जो शारीरिक चेतना से परे हैं अन्यथा शास्त्र किसी अन्य पुस्तक से भिन्न नहीं होता। आधुनिक विद्वान इस तथ्य को स्वीकार नहीं करते हैं और इस प्रकार वे अपनी बद्ध दृष्टि से शास्त्र का विश्लेषण करते हैं। अपने परिवार की महिमागान करते हुए और इसके महत्व एवं विशिष्टता पर जोर देते समय इसी सिद्धान्त का पालन करना चाहिए। अंत में मैं कहता हूँ कि जो कोई भी इस विचार को फैलाता है कि मेरे गुरुदेव मानते हैं कि नित्यानंद परिवार प्रामाणिक नहीं था या नित्यानंद प्रभु माधुर्य-भाव नहीं दे सकते थे, वह केवल मूर्ख है।
Ahankara has the characteristic of exaggerating and minimizing. Sadhus add 15-20 years to their age so people respect them for being old and wise. Women subtract 15-20 years from their age so people will think they are young and beautiful. This is the game of the ego.
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