प्रश्नः भिन्न मतों में निर्णय करने हेतु किन आचार्यों को सर्वश्रेष्ठ अधिकारी मानना चाहिये ?
उत्तरः चैतन्य महाप्रभु हमारे सम्प्रदाय के प्रतिपादक हैं । अतएव, चैतन्य महाप्रभु सर्वश्रेष्ठ अधिकारी हैं । परन्तु उन्होंने कोई दार्शनिक ग्रन्थ नहीं रचा, जैसा कि श्री रामानुजाचार्य जैसे अन्य सम्प्रदायों के प्रतिपादकों के परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है । बल्कि, उन्होंने व्यक्तिगत रूप से रूप गोस्वामी एवं सनातन गोस्वामी को निर्देश दिया, जिन्होंने उनके निर्देशों के आधार पर कई ग्रन्थ रचे। अतएव, वे हमारे सर्वश्रेष्ठ अधिकारी हैं । इसके अलावा, श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी, श्री रघुनाथ दास गोस्वामी एवं तत्पश्चात् श्री जीव गोस्वामी उनका बारीकी से अनुसरण करते हैं । उनके कथन सिद्धान्त हैं क्योंकि उनका चैतन्य महाप्रभु से सीधा सम्बन्ध था । श्री जीव गोस्वामी व्यक्तिगत रूप से चैतन्य महाप्रभु से नहीं मिले थे, परन्तु वे श्री रूप गोस्वामी भतीजे होने के साथ साथ उनके प्रत्यक्ष शिष्य भी हैं । श्री कृष्ण दास कविराज जैसे गोस्वामी के सहृदय एवं अनुसरण करने वाले भक्तों को अधिकारी के रूप में स्वीकार किया जाता है।
प्रश्नः तो, इस कथन के आधार पर, हम इस तथ्य को कैसे समायोजित कर सकते हैं कि छह गोस्वामियों में से किसी ने भी यह नहीं कहा कि गौर-अप्रकट-लीला है ? गोपाल गुरु, ध्यानचन्द्र, विश्वनाथ चक्रवर्ती आदि साधुओं ने वास्तव में ऐसा कहा था, परन्तु मुझे इस विषय के सम्बन्ध में छह गोस्वामी के किसी भी स्पष्ट उक्ति के बारे में ज्ञान नहीं है । उदाहरण के लिए, मैं अद्वैत परिवार से भक्तों को जानता हूं, जो कहते हैं कि अभाव-प्रमाण के अनुसार, यह सिद्ध होता है कि कोई गौर-अप्रकट-लीला नहीं है । तो, मैं इस सम्बन्ध में आपका मत जानना चाहता हूँ कि यदि आप गोस्वामी-ग्रन्थों को हमारे अन्तिम प्रमाण के रूप में मानते हैं एवं उन्होंने इस विषय में स्पष्ट कुछ नहीं कहा है तो हम गौर-अप्रकट-लीला के नित्यत्व को कैसे स्थापित करते हैं ?
उत्तर: रूप, सनातन एवं जीव गोस्वामी ने प्रकट अथवा अप्रकट गौर-लीला पर नहीं लिखा है । उन्होंने चैतन्य महाप्रभु की स्तुति में कुछ पद्यों की रचना की है परन्तु उनकी लीला के विषय में कोई ग्रन्थ नहीं रचा है । परन्तु हम उनके लेखन से जानते हैं कि श्री राम जैसे समस्त अवतारों का अपना आध्यात्मिक धाम होता है । अवतार शब्द का अर्थ है अवतरण, जिसका अर्थ है कि वे भौतिक संसार में अवतरित होते हैं । यह पूर्व से उनके आध्यात्मिक जगत में वास होने से ही सम्भव है । अभिवादन के कई पद्यों में, गोस्वामियों ने महाप्रभु को अवतार के रूप में स्वीकार किया है । तो, उनका अपना निवास होना चाहिए, अन्यथा अवतार शब्द भ्रामक अथवा निरर्थक हो जाता है ।
कृष्ण, उनके पार्षद, एवं धाम के नित्यत्व के विषय में श्री जीव गोस्वामी एक युक्ति प्रस्तुत करते हैं कि कृष्ण को पूजनीय अर्थात् प्राप्य वस्तु के रूप में वर्णित किया गया है। जो नित्य नहीं है वह पूज्य नहीं हो सकता है । आप जिन्हें पूजते हैं, उन्हें प्राप्त करते हैं । यह भगवद्गीता (९.२५) में भी कहा गया है । गोस्वामी महाप्रभु को पूज्य अथवा श्रेष्ठ प्राप्य वस्तु के रूप में स्वीकार करते हैं । अतएव, उनका शाश्वत धाम होना चाहिए । अन्यथा, उनकी पूजा करने की समस्त विधियाँ, उनके नाम का जाप, एवं उनका ध्यान व्यर्थ हो जायेगा ।
कोई आपत्ति कर सकता है कि इन्द्र जैसे देवताओं को भी पूज्य कहा जाता है । परन्तु उन्हें भौतिक लाभ के लिए पूज्य कहा जाता है । मुक्ति अथवा अन्तिम गन्तव्य की प्राप्ति हेतु उनकी पूजा का विधान कहीं नहीं है ।
वेद सर्वोच्च प्रमाण है । परन्तु वेदों में अनेक विषय स्पष्ट रूप से नहीं समझाये गये हैं । हम उन विषयों को पुराण एवं इतिहास से समझते हैं । इसी प्रकार, जिन विषयों को छह गोस्वामी स्पष्ट रूप से नहीं समझाते हैं, उन्हें श्री विश्वनाथ चक्रवर्तीपाद जैसे परवर्ती आचार्यों के लेखन से समझा जाता है । जब मैं कहता हूं कि रूप, सनातन एवं अन्य गोस्वामी प्रमाण हैं, तो मेरा अभिप्राय है कि उनके कथन अथवा उनसे मेल खाते हुए कथन स्वीकार्य हैं । इनके विरोधी कथन स्वीकार्य नहीं है । अतएव यदि श्री विश्वनाथ चक्रवर्तीपाद जैसे परवर्ती आचार्य कहते हैं कि गौर की प्रकट-लीला है, तो यह स्वीकार्य है क्योंकि यह हमारे मूल आचार्यों का खण्डन नहीं करता है और इसके अलावा, यह अन्य अवतारों के सम्बन्ध में उनके लेखन के अनुरूप है।
जहां तक अभाव-प्रमाण का सम्बन्ध है, मैंने ऐसे प्रमाण के विषय में कभी नहीं सुना है । अतएव मैं स्पष्टता से समझ नहीं पा रहा हूँ कि इससे आपका वास्तविक अभिप्राय क्या है । मुझे ज्ञात है कि पूर्व-मीमांसा एवं अद्वैत-वेदान्त अनुपलब्धि प्रमाण स्वीकार करते हैं । परन्तु, जिस प्रकार से आपने इसका प्रयोग किया है वह प्रमाण नहीं है । गोस्वामियों ने गौर-प्रकट-लीला के विषय में कदाचित् ही लिखा है । फिर तो अभाव-प्रमाण द्वारा, मुझे गौर-प्रकट-लीला को भी अस्वीकार कर देना चाहिए । यह कहने जैसा है कि चूं॒कि मैं कृष्ण को नहीं देख सकता (अभाव), अतएव कोई कृष्ण नहीं है । यह तर्क केवल हमारी इंद्रिय-बोध की वस्तुओं पर लागू होता है । उदाहरण के लिए, यदि मुझे मेज पर कोई पुस्तक दिखाई नहीं देती है, तो किसी पुस्तक के बोध न होने के कारण, मैं समझता हूँ कि मेज पर पुस्तक का अस्तित्व नहीं है। परन्तु मैं उसी प्रक्रिया को किसी ऐसी वस्तु पर लागू नहीं कर सकता जो नेत्रों के लिए अगोचर हो । उदाहरण के लिए, मुझे अपने कमरे में वायु नहीं दिखाई दे रही है, अतएव मैं यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकता कि वायु नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि वायु नेत्रों को दिखाई नहीं देती है ।
God wants to give us His mercy, but our mind is not free. It is filled with lust, attachments, and greed. Our mind is like a pot in which lust and greed need to be removed so God can fill the pot with his mercy. Either we can have Krishna or we can have maya. We may think that God is doing an injustice by taking away our wealth, but He is actually making space so He can give us something that we can’t even imagine.
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