प्रश्न: भीष्म एवं द्रोण कौरवों के पक्ष में क्यों हैं ? अन्ततः भीष्म एवं द्रोण अच्छे व्यक्ति हैं ।
उत्तरः भीष्म ने स्वयं युधिष्ठिर को उत्तर दिया है:
अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्
इति सत्यं महाराज बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः
हे राजा, एक व्यक्ति धन का दास है, परन्तु धन किसी का दास नहीं है। यह निश्चित रूप से सत्य है। मैं कौरवों के धन से बँधा हुआ हूँ। (महाभारत, भीष्म पर्व ४३.४१)
अर्थ यह है कि भीष्म एवं द्रोण दुर्योधन द्वारा आर्थिक रूप से समर्थित थे। अतएव, वे उसके पक्ष में युद्ध करने के लिए बाध्य थे।
इस कथा की शिक्षा यह है कि एक धार्मिक व्यक्ति को एक अधर्मी व्यक्ति से अनुग्रह स्वीकार नहीं करना चाहिए, जैसा कि शुकदेव गोस्वामी ने ठीक ही कहा है: कस्माद् भजन्ति कवयो धनदुर्मदान्धान्। (श्रीमद्भागवतम् २.२.५)
प्रश्न: महाभारत का युद्ध प्रत्यक्ष रूप से भूमि को लेकर था । यह तुच्छ लगता है । जैसे-जैसे कथा आगे बढ़ती है, लाखों व्यक्ति मरते हैं जिनमें भीष्म एवं द्रोण जैसे अनेक धार्मिक व्यक्ति भी हैं । क्या उन्होंने इसे इसके लायक माना ? जब इतने अल्प के लिए इतने अधिक व्यक्ति मारे जाते हैं तो क्या धर्म लागू होता है ?
उत्तर: सभी युद्ध भूमि एवं स्त्रियों के लिए होते हैं । एक वैरागी भक्त होने के नाते यह आपको तुच्छ लगता है, परन्तु उनके लिए नहीं जिनका जीवन धन और शक्ति है। भीष्म एवं द्रोण को निर्णय लेने का अधिकार नहीं था ।
प्रश्न: अन्त में, क्या उन्हें उनकी अत्यधिक अभिलषित भूमि प्राप्त हुई ? वह कौन सा परिणाम था जिसके लिए यह युद्ध के लायक बना ? क्या युधिष्ठिर ने ३६ वर्ष तक राज्य नहीं किया ? उसके पश्चात् राज्य परीक्षित को दे दिया गया । क्या कौरवों की जीत से यह इतना श्रेयस्कर था ?
उत्तर: कृष्ण धर्म को स्थापित करने एवं अधर्म को उखाड़ने आए थे । यह उनका ध्येय था । यह ३६ वर्ष अथवा ३ वर्ष का विषय नहीं है, अपितु धर्म एवं अधर्म का विषय है।
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प्रश्न: मैं महाजनों का अनुसरण करने के विषय में एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ ।
श्रीमद्भागवत में बारह महाजनों की सूची का उल्लेख है । भीष्म के जीवन में हम देखते हैं कि उनके अनेक निर्णय अधार्मिक व्यक्तियों के समर्थन में थे।
· जब द्रौपदी का चीरहरण किया गया तब उन्होंने इसका विरोध नहीं किया।
· जब कौरवों ने पाण्डवों को जलाने का प्रयास किया तब उन्होंने कौरवों को दण्डित नहीं किया । यहाँ तक कि उन्होंने उनके राज्य को भी दो भागों में बाँट दिया ।
· उन्होंने अपनी व्यक्तिगत प्रतिज्ञा हेतु कौरवों के पक्ष में युद्ध किया ।
महाजन की परिभाषा क्या है ? हम भीष्म जैसे महाजनों का अनुसरण कैसे करते हैं ? विशेषतः जब हम देखते हैं कि उन्होंने गलतियाँ की तब उनका अनुसरण कैसे सम्भव है ? भीष्म अपने जीवन में कब महाजन बने थे?
इसी प्रकार बलि महाराज के जीवन में हम देखते हैं कि उन्होंने बलपूर्वक इन्द्र के सिंहासन पर स्वामित्व बना लिया एवं उसके उपरान्त योग्यता प्राप्त करने हेतु अश्वमेध यज्ञ किए । हम ऐसे कार्यों में बलि महाराज का अनुसरण कैसे करते हैं ? क्या हम कह सकते हैं कि बलि महाराज आत्म-निवेदन करने के उपरान्त ही महाजन बने एवं उससे पूर्व वे महाजन नहीं थे ?
उत्तर: आपके गुरुदेव आपके प्राथमिक महाजन हैं । उनका अनुसरण करें एवं किसी भी स्थिति में विचार करें कि उन्होंने कैसे कार्य किया होगा ।
प्रश्न: प्रसिद्ध श्लोक “महाजनो येन गतः स पन्था:” की तीसरी पंक्ति के विषय में मेरा एक प्रश्न है। “धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां” श्लोक का शाब्दिक अनुवाद कोई विशेष अर्थ नहीं रखता है—“धर्म का सत्य गुफा में छिपा है।” भक्तिवेदान्त स्वामी कहते हैं गुहायां का अर्थ है “महाजन का हृदय” अथवा “धार्मिक सिद्धान्तों का ठोस सत्य एक शुद्ध, आत्म-साक्षात्कारी व्यक्ति के हृदय में छिपा है।” मैं सोच रहा था कि गुहा हम में से प्रत्येक का हृदय है- धर्म का सत्य हमारे हृदयों में अन्तर्ज्ञान के रूप में छिपा है । कृपया अपना मत प्रस्तुत करें ?
उत्तर: धर्म शब्द का लोकप्रिय अर्थ वैदिक शास्त्र में निर्धारित विभिन्न सिद्धान्तों को समाहित करता है। यही धर्म का भाव भी है जिसे इस श्लोक के सन्दर्भ से समझा जाता है। अतएव मुझे नहीं लगता है कि “अंतर्ज्ञान” इस श्लोक में धर्म का अभीष्ट अर्थ है ।
मनुस्मृति (२.१२) के अनुसार धर्म के चार स्रोत हैं – वेद, स्मृति, सदाचार एवं जो स्वयं के लिए सन्तोषजनक है । श्रीमद्भागवतम् ७.११.७ का भाव भी यही है।
अतएव मेरा सुझाव है कि आपके द्वारा सन्दर्भित श्लोक की तृतीय पंक्ति सदाचार की ओर संकेत करती है। जीवन में ऐसी परिस्थितियाँ आती हैं जिनका हम सामना करते हैं परन्तु उनका उत्तर हमें वेदों अथवा स्मृति में प्राप्त नहीं होता है । ऐसी स्थितियों के लिए हम साधुओं के सदाचार- साधु-वर्त्मानुवर्तनम् (भक्तिरसामृतसिन्धु) – पर निर्भर हैं ।
उदाहरणार्थ: क्या वैष्णव को आलू, टमाटर, चॉकलेट आदि खाने चाहिए ? इस विषय में शास्त्र से कोई सहायता प्राप्त नहीं होती है। यहाँ केवल सदाचार ही हमारा प्रमाण है ।
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